होमवर्क से शिकायत थी कभी, कुछ पन्नो को स्याही से भरने में बड़ा ज़ोर आता था, घडी की सुइयां मुर्दा हो जाती थी और मन उड़ता हुआ चरों और जाता था. टीवी के कार्टून और मूवी के किरदार पन्नो में नाचते थे, स्कूल से छूट कर हम कैसे बदहवास भागते थे, कुछ घंटो में ज़िन्दगी जी लेते थे, फिर डूबते सूरज के साथ स्कूल बैग को ताकते थे. नोट-बुक फिर धीरे से खुलती थी, पन्ने बेमन से पलटते थे, सजा में मार की गुंजाईश अगर थोड़ी भी काम होती, तो बेशरम सा में सारा होमवर्क छोड़ जाता था होमवर्क से शिकायत थी कभी, कुछ पन्नो को स्याही से भरने में बड़ा ज़ोर आता था. ज़िन्दगी मुश्किल बहुत लगती थी बचपन में अपनी, बड़ों से जलन बहुत होती थी, बढ़ने की तड़प बहुत होती थी, किसी शाम हम भी बेरोकटोक टीवी खोलेंगे, अपनी मर्ज़ी को बेबाक हर बड़े से बोलेंगे, इन ख्यालों को अनगिनत बार जीया हे मैंने, जब दिखावे को नज़र किताबों में छुपी होती थी. कभी पापा के डांट से घर चुप-चाप रहता था, उस सन्नाटे में भी मेरे ख्यालों का पूरा शोर आता था, होमवर्क से शिकायत थी कभी, कुछ पन्नो को स्याही से भरने में बड़ा ज़ोर आता था. आज अनमने से चैनल बदलते हैं, और जबरदस्ती स्मार्ट फ़ोन खंगाले जाते हैं, मर्ज़ी की ज़िन्दगी में दिन रात किसी और के काम संभाले जाते हैं, अपने ऑफिस की खिड़की के बाहर नज़र जाए तो ये गुजरता दिन मुझपे हंस देता है, मैं कमाने की ग़लतफहमी में खुश रहता हूँ और मेरा सब कुछ मेरे ये पल चुरा ले जाते हैं. राहें तो मुक्कमल हैं कदम फिर भी क्यों भारी हैं, कुछ बदला वहाँ जहाँ जवानी का मोड़ आता था, होमवर्क से शिकायत थी कभी, कुछ पन्नो को स्याही से भरने में बड़ा ज़ोर आता था. उस होमवर्क को miss करता हूँ, उन शामों को miss करता हूँ, हज़ारों ख्वाबों को क़ैद किये बैठी उन आँखों को miss करता हूँ, फिर नोटबुक धीरे से खुले और मैं किसी की ‘कॉपी’ से नक़ल कर लूँ, सूरज के ढलने से पहले मैं फिर एक बार जी भर के जी भर लूँ. कुछ साले पहले की ही तो कहानी है, जब होमवर्क से जी चुराता दिल में वह मासूम सा चोर आता था, होमवर्क से शिकायत थी कभी, कुछ पन्नो को स्याही से भरने में बड़ा ज़ोर आता था