शाखों पे परों को मोड़ के बैठा है वोह पागल , फलक को नापने की हसरतें दिल में छुपा कर के, वोह कोरी सी दो आंखें ताकती हैं अनगिनत तारे, संभल कर पैर रखता है उड़ानों को भुला कर के, हवाओं ने उड़ाया शाख से जो चंद पत्तों को, वोह डर के छुप गया खुद से, खुद ही को डरा करके.
लहू सी सुर्ख दो आंखें लिए एक बाज जब झपटा, परों से आसमा को चीरता, लिए आँखें निशाने पे, वोह पागल शाख पे दौड़ा, बचने को शिकारी से, तमाशा देखती थी मौत ये सब मुस्कुरा कर के, कदम दो चार ही दौड़ा, उलझ के गिर गया नीचे, अचानक खुल गए जो बंद थे पर फड़फड़ाकर के.
ज़मीं कुछ दूर थी वोह दूर ही फिर रह गयी उससे, हवा में तैरता हैरानियाँ दिल में दबा करके, वोह पंजे बेसबर थे मासूम की गर्दन दबाने को, शिकारी ने पढ़ लिया था दूर से ताज़ा उड़ानों को, एक दौड़ थी फिर ज़िन्दगी की मौत से ऐसी, पलों का फासला था मौत का सांसें हराने को.
हैरानियों ने फिर पनाह ली हौसलों की गोद में जा कर, बागी पंख फिर झूमे इशारा दिल से यूँ पा कर, दूर होता तल, गगन नजदीक आता था, परिंदा तीर सा ऊँचाइओं की ओर जाता था, पीछे रह गया डर और शिकारी हाथ को मलता, हवाओं से परिंदे का बोहोत पहले का नाता था.
बिंदु सी थी ये दुनिया जो देखी पर फैला कर के, क्यों बैठा था वोह पागल शाख पे खुद को मना करके, मंजिल थी उड़ानों में, इन्ही सब आसमानो में, क्यों संभल कर पैर रखता था वोह उड़ानों को भुला कर के.